लोकसभा चुनाव 2019 से ठीक पहले अकाली दल ने बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। इसका पंजाब में बीजेपी की स्थिति पर काफी असर पड़ सकता है। दरअसल, शिरोमणि अकाली दल को भाजपा की पंथक सियासत रास नहीं आ रही है। यह पहली बार है कि राष्ट्रीय सिख संगत ने अकाली दल की तीखी आलोचना कर दी है। भाजपा ने सिख समुदाय को अपनी तरफ खींचने के लिए खुद ही मैदान में वर्क करना शुरू कर दिया है।
सिखों की काली सूची का मामला हो या फिर तख्त श्री नांदेड़ साहब का, भाजपा ने अकाली दल को हाशिये पर रखा हुआ है। ऐसे में अकाली दल भी भाजपा को आंखें दिखाने में पीछे नहीं हट रही है। हाल ही में अकाली दल ने भाजपा को चेतावनी दी थी कि वह हरियाणा और अन्य राज्यों में अकेले चुनाव लड़ेंगे। दरअसल, अकाली दल हमेशा पंथक वोट बैंक के बल पर ही सूबे में सरकार बनाता आया है।
सिखों की मिनी पार्लियामेंट एसजीपीसी पर अकाली दल का ही कब्जा रहा है। नवंबर 1986 में एसजीपीसी के प्रधान के चुनाव को लेकर बरनाला सरकार के दो मंत्रियों बसंत सिंह खालसा और मेजर सिंह उबोके ने इस्तीफा देकर बादल दल के उम्मीदवार जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहड़ा को वोट डाल दिए। इसके बाद एसजीपीसी और अकाली दल पर बादल-टोहड़ा जोड़ी का कब्जा रहा।
अकाली दल वही शक्तिशाली रहा जिसके पास एसजीपीसी का प्रबंध रहा। इसका कारण यह भी है कि एसजीपीसी वाले बैठकों के लिए जगह, लंगर और बिना कोई कोशिश किए संगत के रूप में भीड़ मुहैया करवा देते हैं।